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कविता

तुम्हारा देखना

शेषनाथ पांडेय


तुम्हारी पीठ की तरफ मेरी आँखें हैं
जैसे सूरज की पीठ की तरफ चाँद देखता है
सूरज कहीं देखता नहीं
बस उगता है, पनपता है और फैल जाता है
और इस विस्तार में
तुम भी हवा की लय बन के
सजदे करते हो सूरज के

जब सूरज तुम्हें अपनी चटकीली ऊष्मा से
तरबतर कर देता है और तेरी सुर्ख हरी नमी
गुनगुने पानी की तरह थकान की देह पर
नरम हथेलियों की सहलाव सा सरकती है
हर लमहे पर भारी पड़ने लगता है
तुम्हारा मिलना

तुम सूरज के साथ मिल के
एक दम से ठहरा देना चाहते हो
भागने लगते हो
भागती हुई दुनिया के पीछे|
चाँद से मिन्नतें करते हो
अपने बारजे पे उतरने के लिए
तब तुम्हें कहाँ भान होता है
अपनी छोड़ी हुई मन्नतों
भींगी हुई स्मृतियों
और रवादार खुशबू पे चढ़ के मचलने की
कहाँ भान होता है।
कहीं कोई चाँद तब से तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा है...


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